कोरबा रेलवे स्टेशन की ‘धरातल पर उतरी’ सौर ऊर्जा योजना की हकीकत

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छत्तीसगढ़
कोरबा/स्वराज टुडे: केंद्र में एनडीए सरकार और राज्य में भाजपा सरकार—दोनों स्तरों पर क्लीन और नेचुरल एनर्जी को बढ़ावा देने के बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। खासकर रेलवे को ‘ग्रीन एनर्जी’ की ओर ले जाने की योजनाओं को उपलब्धि बताते हुए प्रचारित किया जाता है। लेकिन जमीनी तस्वीर क्या है?

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यह फोटो कोरबा रेलवे स्टेशन का एक ताज़ा दृश्य है, जहां स्टेशन की छत पर सोलर पैनल की कतारें तो जरूर लगी हैं, लेकिन उनकी हालत इस योजना की वास्तविकता खुद बयान कर रही है—

● पैनलों पर मोटी कोल डस्ट,

● महीनों से साफ़-सफाई का अभाव,

● धूल और प्रदूषण की परतें,

● कई पैनल झुके, असंतुलित और क्षतिग्रस्त।

ऐसी स्थिति में यह सवाल बिल्कुल स्वाभाविक है कि आखिर ये पैनल प्रतिदिन कितनी बिजली उत्पन्न कर पाते होंगे? और क्या सरकारी पैसे का उपयोग सही जगह हो रहा है या सिर्फ कागजों में ‘ग्रीन एनर्जी’ के नाम पर फाइलें चमकाई जा रही हैं?

कोरबा स्टेशन की कहानी — औरों की भी हकीकत

कोरबा रेलवे स्टेशन की यह दशा अकेली नहीं है। इस पूरे क्षेत्र के अधिकतर स्टेशनों पर स्थिति लगभग एक जैसी ही मिलती है।
यहां रेलवे का प्राथमिक काम कोयला ढुलाई है—जिससे राजस्व आता है।
लेकिन यात्रियों की सुविधा, स्टेशन की स्वच्छता, वायु गुणवत्ता, या सौर ऊर्जा उत्पादन—इन सब पर ध्यान न के बराबर दिया जाता है।

कोल डस्ट की मार

कोरबा ‘पावर कैपिटल’ कहलाता है, और यहां के हर कोने में कोल डस्ट का असर साफ दिखता है। यही कोल डस्ट सोलर पैनलों की कार्यक्षमता 40–60% तक घटा देता है।
सोलर पैनल एक महीने साफ़ न हों तो उनका उत्पादन आधा हो जाता है—और यहां तो महीनों से सफाई का कोई प्रबंध दिखता ही नहीं।

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योजना थी कि स्टेशन खुद अपनी बिजली बनाए…

रेल मंत्रालय की योजना के अनुसार इन पैनलों से स्टेशन परिसर की लाइटिंग, ऑफिस, प्लेटफ़ॉर्म और सिग्नलिंग सिस्टम के लिए बिजली तैयार होनी थी।
लेकिन जब पैनल ही धूल में ढके हों, झुके हों या खराब अवस्था में हों तो उत्पादन नाम मात्र का ही बचता है।

लोगों का सवाल—किसके पैसे से, किसके लिए?

सोलर प्लांट लगाने पर लाखों–करोड़ों रुपये खर्च होते हैं।
लेकिन रखरखाव पर ध्यान न देकर इसे यूँ ही छोड़ देना सीधे-सीधे सरकारी धन की बर्बादी है।

स्थानीय लोगों का कहना है—

> “रेलवे को सिर्फ कोयला ढुलाई से मतलब है। यात्रियों से नहीं, उनके स्वास्थ्य से नहीं। सब कुछ कोल डस्ट में डूबा हुआ है—प्लेटफॉर्म से लेकर पैनलों तक।”

🛑 नतीजा

कागज़ों पर कोरबा स्टेशन ‘सौर ऊर्जा संचालित’ हो सकता है,
लेकिन असलियत में यह योजना धूल में दबी हुई ‘ग्रीन एनर्जी’ की कहानी बनकर रह गई है।

✔️ ज़रूरत है

● नियमित सोलर पैनल सफाई की व्यवस्था

● कोल डस्ट कंट्रोल मैकेनिज़्म

● मेंटेनेंस रिपोर्ट सार्वजनिक करने की पारदर्शिता

● यात्रियों की सुविधाओं को प्राथमिकता

● जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक ‘क्लीन एनर्जी’ का सपना सिर्फ भाषणों में चमकेगा—छतों पर नहीं।

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दीपक साहू

संपादक

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