कविता: तुम में और मुझ में कौन है बेहतर?- बिंदेश कुमार झा

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1. तुम में और मुझ में कौन है बेहतर?

तुम में और मुझ में कौन है बेहतर
ऊँची पर्वतों की चोटी
यह धरती का लघु कण,
राजकुमार का शयन कक्ष
या योद्धाओं का रण?

तुम में और मुझ में कौन है बेहतर?
पवन की गोद में खेलते पुष्प
यह तूफान से लड़ता कांटा?
ऊँची आवाज़ में दहाड़ने वाला मेघ
या बरसते मेघ का सन्नाटा।

तुम में और मुझ में कौन है बेहतर?
छोटा सा सुंदर तालाब
यह ऊँचाई से गिरता झरना,
यह सिक्कों से भरी नदी?
या समंदर का गहराई से संघर्ष करना?

2. अहंकार

गगन के हृदय में अंकित सितारा
अपनी यश-गाथा का विस्तार कर रहा,
इतराकर सूरज से बैर किया है
सूर्य की लालिमा मात्र से कहार रहा।

अपनी सुंदर यौवन से पुष्प
भूमि का जो तिरस्कार किया,
एक पवन के झोंके ने उसे
सौ टुकड़ों का आकार दिया।

अपनी तेज धार से जल
भय का जो संचार किया,
बांध बनाकर मनुष्य ने वहां
जल का उसका अधिकार लिया।

अपने ऊंचे कद का पर्वत
गगन को जो ललकार रहा,
धारा ने अपनी करवट से ही
उस पर तीव्र प्रहार किया।

अपनी गौरव हो या योग्यता
का जिसने अहंकार किया,
प्रकृति ने अपने समय में
उसका सदा तिरस्कार किया।

3. तू देख, मेरा कृष्णा आ गया!

दो हाथ भले ना हो मेरा
पर कोटी हाथ वाला खड़ा है,
तू उठा एक शास्त्र अपनी भुजा से
मेरा साहस ही तुझसे बड़ा है।

दो पैर भले ना हो मेरा
कोटी पंख लगे मुझ में,
मैं नील गगन से आऊंगा
कितना साहस है तुझमें।

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भले दो शब्द ना बोल सकूं मैं
गीता वाचक मेरे संग है,
उसकी मुरली की धुन के आगे
नाचता हुआ तेरा पतन है।

देख नाचता हुआ सूरज
ब्रह्मांड जिसके मुख में है,
तू कांप उसकी आहट से
खड़ा हो तेरे सम्मुख है।

तू देख, मेरा कृष्णा आ गया!
सुई से पर्वत का हिसाब लेने,
जा लेके आ अपनी सेना,
अपने कर्मों का हिसाब देने।

नाच रहा था तू किसी के
करुणा भरी गीत पर,
अब नाच तू अकेला ही
बांसुरी के संगीत पर।

बिंदेश कुमार झा, साहित्यकार
नई दिल्ली

दीपक साहू

संपादक

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