बिलासपुर/स्वराज टुडे: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक *मोहन भागवत* का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने दावा किया कि “संघ ने हमेशा तिरंगे का सम्मान किया, उसे सम्मान दिया और उसकी रक्षा की,” संगठन के ऐतिहासिक रिकॉर्ड के सामने एक गंभीर चुनौती पेश करता है। भागवत का यह बयान बेंगलुरु में ‘100 इयर्स ऑफ संघ जर्नी: न्यू होराइज़न्स’ नामक व्याख्यान श्रृंखला के दौरान आया, लेकिन यह विरोधाभासों और अस्पष्ट ऐतिहासिक तथ्यों से भरा हुआ प्रतीत होता है।
तिरंगे का विरोध, भगवा का आग्रह
भागवत का दावा है कि संघ ने सदैव तिरंगे का सम्मान किया, जबकि ऐतिहासिक प्रमाण इसके विपरीत हैं। आजादी के ठीक पहले, RSS के मुखपत्र *’ऑर्गनाइज़र’* में प्रकाशित संपादकीय (जुलाई-अगस्त 1947) स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे की निंदा करते थे।
14 अगस्त 1947 को ‘ऑर्गनाइज़र’ में लिखा गया कि:
”जो लोग भाग्य के झटके से सत्ता में आए हैं, वे हमारे हाथों में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन इसे कभी हिंदुओं द्वारा सम्मानित और स्वीकार नहीं किया जाएगा। तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है, और तीन रंगों वाला ध्वज निश्चित रूप से एक बहुत ही खराब मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा और देश के लिए हानिकारक है।”
यह सिर्फ़ एक संपादकीय विचार नहीं था। 1929-30 में जब कांग्रेस ने 26 जनवरी को ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाने और तिरंगा फहराने का आह्वान किया, तब भी RSS के संस्थापक हेडगेवार ने अपनी सभी शाखाओं को भगवा ध्वज को ही राष्ट्रीय ध्वज मानने का निर्देश दिया था, न कि तिरंगे को। यह विरोध वर्षों तक RSS के मुख्यालय पर तिरंगा न फहराए जाने की प्रथा में भी परिलक्षित होता रहा ।
सरकारी दबाव या स्वेच्छा से स्वीकृति
तिरंगे के प्रति संघ की स्वीकार्यता स्वेच्छा से ‘देशभक्ति’ की भावना से आई, या यह सरकारी दबाव का परिणाम थी? ऐतिहासिक तथ्य बाद वाले की ओर इशारा करते हैं।
महात्मा गांधी की हत्या के बाद, तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने 4 फरवरी 1948 को RSS पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह प्रतिबंध *11 जुलाई 1949″ को तभी हटाया गया जब RSS ने लिखित रूप में संविधान और राष्ट्रीय ध्वज के प्रति वफ़ादारी* का वादा किया। यह स्पष्ट करता है कि राष्ट्रीय प्रतीकों की स्वीकार्यता एक कानूनी शर्त थी, न कि स्वाभाविक वैचारिक बदलाव।
यहाँ तक कि 2001 में भी, नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश करने वाले तीन युवा सदस्यों को जेल जाना पड़ा था, जिन्हें बाद में 13 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 2013 में बाइज्जत बरी किया गया। यह घटना भी संघ प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध तिरंगे को फहराने की एक मिसाल है।
संविधान और हिंदू महासभा का गठजोड़
मोहन भागवत का दावा केवल तिरंगे तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह संघ की विचारधारा में ‘समय के साथ बदलाव’ की व्यापक प्रवृत्ति को भी दर्शाता है।
*संविधान का विरोध:* संविधान पारित होने के बाद दिल्ली के राम लीला मैदान में डॉ. भीमराव अंबेडकर का पुतला जलाने और संविधान की प्रतियाँ जलाने की घटनाएँ (जैसा कि आपके इनपुट में उल्लेख है) इस बात का प्रमाण हैं कि RSS ने स्वेच्छा से संविधान को भी आसानी से नहीं स्वीकारा।
हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का गठजोड़:
1940 के दशक की शुरुआत में हिंदू महासभा (जिसे कई आलोचक RSS की वैचारिक जड़ मानते हैं) ने सिंध, बंगाल और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (NWFP) में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें बनाईं। यह तब हुआ जब कांग्रेस ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के कारण सत्ता से बाहर थी। बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का उपमुख्यमंत्री बनना और सिंध में पाकिस्तान प्रस्ताव के बावजूद मंत्रियों का बने रहना, संस्था के ‘हिंदू रक्षक’ के तौर पर स्वयं को प्रस्तुत करने के दावे पर प्रश्नचिह्न लगाता है। यह दर्शाता है कि अवसरवाद की राजनीति उस समय भी एक प्रमुख कारक थी।
इतिहास को बदला नहीं जा सकता*
मोहन भागवत का यह दावा कि “संघ ने हमेशा तिरंगे का सम्मान किया” *ऐतिहासिक रूप से गलत* है। यह बयान संघ के अतीत के उन विवादास्पद अध्यायों को मिटाने का प्रयास प्रतीत होता है, जिनमें तिरंगे के लिए अनादर, संविधान के प्रति विरोध और सत्ता की राजनीति में अवसरवादिता स्पष्ट रूप से दर्ज है।
कोई भी संस्था अपने इतिहास को बाद के बयानों से फिर से नहीं लिख सकती। RSS ने अपनी स्थापना के शुरुआती दशकों में जो रुख अपनाया, उसे सरकारी दबाव और बदलते राजनीतिक परिदृश्य के कारण ही बदलना पड़ा। इतिहास को केवल ‘दबाव में स्वीकार्यता’ के रूप में देखना ही उचित होगा, न कि ‘हमेशा सम्मान’ के रूप में, जैसा कि भागवत ने दावा किया है।
यह लेखक के निजी विचार है
राकेश प्रताप सिंह परिहार
( “राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ” अखिल भारतीय पत्रकार सुरक्षा समिति, पत्रकार सुरक्षा कानून के लिए संघर्षरत)

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