मुंबई के ट्रैफिक सिग्नल पर बचपन में फूल बेचती थी सरिता, आज अमेरिका में दे रही अपने सपनों को उड़ान

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नई दिल्ली/स्वराज टुडे: मुश्किलों से लड़ते हुए शरीर को तपा कर सफलता की उड़ान भरने वाली फिल्मी कहानियां तो आपने बहुत देखी होंगी, पर यह रीयल स्टोरी है। कहानी एक ऐसी लड़की की, जिसे हालात ने मुंबई के ट्रैफिक सिग्नल्स पर फूल बेचने के लिए खड़ा कर दिया। लेकिन उसने हार नहीं मानी। दोष भी नहीं दिया न तो अपनी परिस्थितियों को और न ही अपनी किस्मत को। मुंबई की झोपड़पट्टी में रहने वाली वह लड़की अपनी किस्मत खुद गढ़ना शुरू करती है। वह JNU पहुंचती है। यूपी के जौनपुर से ताल्लुक रखने वाली उस लड़की के सपने पूरे होने अभी बाकी थे। उसने जो सफर शुरू किया था उसकी मंजिल दूर थी। अमेरिका से उसके लिए फेलोशिप आई और वह अमेरिका के लिए उड़ चली। इस रीयल हीरो का नाम सरिता माली है।

बचपन में फूल बेचने के लिए गाड़ियों के पीछे दौड़ती थी सरिता

सरिता उस समय छठवीं कक्षा में पढ़ती थीं जब पिता के साथ उन्हें मुंबई के ट्रैफिक सिग्नल्स पर फूल बेचने के लिए गाड़ियों के पीछे दौड़ना पड़ता था। फूल बिकते तो परिवार दिनभर में मुश्किल से 300 रुपए कमा पाता था। आज 28 साल की जेएनयू रिसर्च स्कॉलर अमेरिका में पीएचडी कर रही हैं। वह मुंबई के घाटकोपर इलाके के पास की झुग्गी में पली-बढ़ी। उन्होंने बचपन में लड़की होने और स्किन कलर के कारण भेदभाव देखा था। हालांकि हर कदम पर उनके पिता साथ में खड़े रहे। उनके पिता ने अपने गांव में देखा था कि पढ़ाई के बाद ऊंची जाति के लोग सब कुछ हासिल कर सकते थे। इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को पढ़ाने का फैसला किया।


सरिता माली के माता-पिता

ट्यूशन पढ़ाकर बचाए पैसे

10 वीं की पढ़ाई के बाद माली ने अपने इलाके के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। वह अपने पिता की खूब पढ़ने की इच्छा पूरी करना चाहती थीं। पैसे बचाकर उन्होंने केजे सोमैया कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स में दाखिला लिया। उनसे प्रेरित होकर बड़ी बहन और दो भाइयों ने भी पढ़ाई को नहीं रोका। उनके पिता ग्रैजुएट और पोस्ट ग्रैजुएट में अंतर नहीं समझते, लेकिन वह इतना जरूर जानते हैं कि शिक्षा सबसे बड़ी ताकत है।

फेसबुक पोस्ट में सरिता माली ने शेयर की अपने संघर्षों की दास्तां 

उन्होंने लिखा कि अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में मेरा चयन हुआ है- यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन… मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है। मुझे इस यूनिवर्सिटी ने मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फेलोशिप में से एक ‘चांसलर फ़ेलोशिप’ दी है।

मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू , कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य… अपने सफर को याद करते हुए सरिता कहती हैं कि सफर के अंत में हम भावुक हो उठते हैं क्योंकि ये ऐसा सफ़र होता है जहां मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती है। उन्होंने कहा – यह मेरी कहानी है मेरी अपनी कहानी।

पढ़िए सरिता माली के फेसबुक पोस्ट का अंश-

मैं मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से हूं लेकिन मेरा जन्म और परवरिश मुंबई में हुई। मैं भारत के जिस वंचित समाज से आई हूं, वह देश के करोड़ों लोगों की नियति है लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है क्योंकि मैं यहां तक पहुंची हूं। जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रोशनी जो दूर से रह -रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है। मैं भी उसी टिमटिमाती हुई शिक्षा रूपी रोशनी के पीछे चल पड़ी।

मैं ऐसे समाज में पैदा हुई जहां भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था। हमें कीड़े-मकोड़ों के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढ़ाई। मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं। मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूं तो मुझे मेरा बचपन याद आता है और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा?

जब हम सब भाई- बहन त्योहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेचते थे तब हम भी गाड़ीवालों के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे। पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है। अगर हम नहीं पढ़ेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिंदा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जाएगा। हम इस देश और समाज को कुछ नहीं दे पाएंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे। मैं यह सब नहीं कहना चाहती हूं लेकिन मैं यह भी नहीं चाहती कि सड़क किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे उसका हौसला ख़त्म हो। इसी भूख अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई।

JNU के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थों में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी। जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया। जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके। मैं बेहद उत्साहित हूं कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है।

2014 में 20 साल की उम्र में मैं JNU मास्टर्स करने आई थी और अब यहां से MA, M.PhiL की डिग्री लेकर इस साल PhD जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा PhD करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है। पढ़ाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जुनून रहा है। खुश हूं कि यह सफ़र आगे 7 वर्षों के लिए अनवरत जारी रहेगा। अब तक मेरे जीवन में मुझे ऐसे शिक्षक मिले जिन्होंने न केवल मुझे पढ़ाया बल्कि हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया। मेरे यहां तक पहुंचने में गुरुजनों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

दीपक साहू

संपादक

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